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चाँद और रोटी

आज आस थी चाँद सी गोल गोल , चूल्हे पे लहराती, मुस्कुराती, चंद जवार की रोटियाँ….

रोज़ रोज़ , सुबह शाम एक बेकार जिस्म की भूक मिटाती, चलने को मजबूर करती रोटी…. !


इतना ही था सपना, और इतना ही था वजूद ज़िंदगी का रोटी के लिए !!

और बेकार के खुदा अजान देते ५ बार दिन में

और गंगा के किनारे जलती एक लाश मोक्ष में सदियोंसे मुबारक ।।


गंगा हो या मक्का हो … या हो बेचारा वैटिकन

सुकून से जीना था… ले के चाँद सी गोल गोल रोटी इन बाहोमे !!


और अब आलम है….

रोटी का रंग क्या…..???

रोटी की फ़ित्रत क्या ???


मै हूँ सिर्फ़ इंसान इस कायनात का

रोटी मिल गयी….. दाल को तड़के का इंतज़ार मुबारक ॥


एक आधे कच्चे रोटी की बात थी भूक मिटाने के वास्ते ,

तुम ने कमीने रोटी को मस्जिद - मंदिर का भगवान कर दिया

और मुझे छोड़ दिया दर दर भटकने के लिए…

बनके कभी भिकारी , तो कभी बनके मुसाफ़िर अंजाना !!


खोज ही थी उलझन ए ज़िंदगी की मुबारक

और हाल है के मेरे लाश पे .. चंद रोटियाँ सेखी जाती है और कहीं ज़िंदगी की भूक मिटती है…. !


लगाओ आग नफ़रत की… जी भर के मेरे दोस्त…

नफ़रत और मोहब्बत की जंग में……

मोहब्बत के शोले, नफ़रत के बर्फीले पहाड़ पे … जीने की आँच लगा देंगे मुबारक ॥


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